Sunday, May 19, 2019

लघुकथा

जल्पना
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बेसिर पैर के सपने देखने की बीमारी है मुझे । न जाने कितने वैद्य हकीम डॉक्टर इससे निजात न दिला पाए।
सेल्फ फाइनेंस कालेज के मैनेजमेंट ने एक साथी शिक्षक को बिना किसी पूर्व सूचना या ग़लती के निकाल दिया
दूसरे शिक्षक साथी बता रहे थे....
मैंने देखा सबूटी नदी में पानी बहुत कम हो गया सबाना के हरे भरे मैदान लगभग रेगिस्तान बन गए हैं।
शाकाहारी जीवों के प्रवास का समय है
वे अपनी जान बचाने को झुन्ड की ताक़त में है, आदमखोर भरसक दूरी से नज़र गड़ाए हैं  शिकार ताड़ लिया गया है । झुंड को ख़बर नहीं। रफ़्तार, रफ़्तार और रफ़्तार..., हमला...,  शिकार लड़खड़ा कर गिर गया...
साथ वाले भागते गये..., भागते गये..., कोई नहीं रूका.... , चीं... चीं... चीं... की कुछ आवाज़ें और आदमखोर ने टेंटुआ दबा दिया.... कुछ देर को भगदड़ ठहर गई... कुछ ने कान फड़फड़ाये... कुछ ने नथुने फैलाये पिचकाये...., कुछ ने गर्दन मोड़ आँखें फाड़कर देखा... फिर अपनी राह चल पड़े।
"सुन रहे हैं न आप?" साथी शिक्षक  होंठ फड़फड़ा रहा था..., दूसरा शिक्षक कान..., तीसरा आँखें... , मैं भी अपनी गर्दन उचका कर हवा में  माँस ख़ून की घुलीमिली गंध सूँघ रहा हूँ...।
वातावरण निर्विकार है..., हवा सब ढो ले गई शायद.... 
अचानक लगा किसी की चिकोटी से मेरा बेसिर पैर का सपना भंग हो गया। मुझे चिकोटी काटने वाला शिक्षक मैनेजिंग डायरेक्टर के सम्मान में खड़ा था। मैं भी हड़बड़ा कर खड़ा हो गया।
मैं ख़ुद न समझ पाया, कि मेरी जल्पना के तार कहाँ तक फैले हैं।

डॉ संध्या तिवारी
पीलीभीत